Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


74. यज्ञ : वैशाली की नगरवधू

पहले दिन सहस्र - दक्षिण चार दीक्षावाला सोमयाग प्रारम्भ हुआ और पुरोडाश चढ़ाया गया । इसके बाद श्रुतहोम , विष्णुयाग, चातुर्मास्य, वरुण प्रवास , शाकमधीय , शुनासीरीय और पंचवातीय याग का अनुष्ठान हुआ। आहवनीय अग्नि का देवताओं की दिशा में विस्तार किया गया । फिर ‘ इन्द्रतुरीय यज्ञ और अपामार्ग होम हुआ ।

आचार्य अजित केसकम्बली यज्ञ के अध्वर्यु और कणाद, औलूक , वैशम्पायन पैल , स्कन्द कात्यायन , जैमिनी , शौनक , कात्यायन , वररुचि , बोधायन , भारद्वाज , पतञ्जलि , शाम्बव्य, सांख्यायन आदि सोलह कर्मकाण्डी वेदपाठी ब्राह्मण ऋत्विक् थे। माल -मलीदे खाने वाले और बहुत - से ब्राह्मण , ब्रह्मचारी, वटुक और श्रमण निरन्तर राजधानी में आ रहे थे। आगत राजा - महाराजा कुछ आते थे, कुछ जाते थे। व्यवस्था करने पर भी अव्यवस्था बहत थी । देश - देशान्तर की वेश्याएं भी यज्ञ में आई थीं । वे हंस -हंसकर ब्राह्मणों और समागत जनों के अंग पर गन्ध -माल्य -लेपन और परिहास से उनका मनोरंजन कर रही थीं ।

अग्निदेव को निरन्तर घृत की धारा पान कराई जा रही थी । घी के कुप्पे के कुप्पे यज्ञस्थल में रखे थे। विविध साकल्य , वनस्पति ; पुरोडाश , बलि और आहवनीय पदार्थों से भरे सैकड़ों पात्र , दास - दासियां और राजपुत्र यज्ञभूमि में ला रहे थे। यज्ञवेदी से निकट यूप के चारों ओर एक बड़े बाड़े में घिरे देश- देशान्तर से लाए हुए बछड़े, बैल , भेड़ आदि पशु गवालम्भन - अनुष्ठान की प्रतीक्षा में विविध रंगों और पुष्पों से सुसज्जित और पूजित हो , हरी-हरी घास खा रहे थे। देवताओं को मांस का हविर्भाग अर्पण करके जो हविर्मांस बचता था , उसमें हरिण, वराह आदि मध्य पशुओं का मांस और कन्द - मूल - फल , तिल - मधु - घृत मिलाकर खांडव - राग तैयार किया जा रहा था । उसे वेदपाठी ब्राह्मण रुच-रुचकर बार बार मांग - मांगकर खा रहे थे। एक - एक देवता का आवाहन करके विविध पशुओं, पक्षियों , जलचरों और वृषभों की आहुति यज्ञकुण्ड में दी जा रही थी । ब्राह्मणों के साथ क्षत्रिय, वैश्य और व्रात्य आगत समागत यज्ञबलि का प्रसाद श्रद्धा- पूर्वक खा रहे थे। कहीं गृहस्थाश्रमीय श्रोत्रिय ब्राह्मणों के लिए दूध , खीर, खिचड़ी , यवागू , मांग, बड़े, सूप आदि खाद्य -पेय बनाए जा रहे थे ।

गौडीय , माध्वीक , द्राक्षा ढाली जा रही थी । सोपधान आराम से बैठे हुए आगत जन विविध प्रकार से भुने हुए कुरकुरे मांस के साथ सौवर्ण, राजत तथा मणिमय पात्रों में मद्य पान करके परस्पर विनोद कर रहे थे। आढ्य पुरुष रुच-रुचकर मांसोदन खा रहे थे। कुछ लोग सक्थु, घी और शर्करा मिलाकर आनन्द से खा रहे थे। सैकड़ों आरालिक, सूपकार और रागखाण्डविक लोग विविध खाद्य- संस्कारों में संलग्न थे।

गवालम्भन और पशुयाग को लेकर नगर में एक क्षोभ का वातावरण उठ खड़ा हुआ था । श्रमण महावीर और शाक्य गौतम , दोनों ही महापुरुष इस समय श्रावस्ती ही में थे। वे निरन्तर अपने प्रवचनों में यज्ञ -विरोधी भावना प्रकट करते रहते थे और इसके कारण अनेक सेट्टि गृहपति , सामन्त , राजपुत्र और विश यज्ञ के गवालम्भन को लेकर भीतर - ही - भीतर महाराज के प्रति विद्रोही होते जा रहे थे। प्रच्छन्न रूप से राजकुमार विदूडभ और आचार्य अजित केसकम्बली ऐसे लोगों को प्रोत्साहन दे रहे थे। राजधानी में सेनापति मल्ल बन्धुल नहीं थे। उनके बारहों बन्धु - परिजन मारे जा चुके थे । इससे राजा बहुत चिंतित और व्यग्र हो रहे थे। एक ओर जहां समारोह हो रहा था वहां दूसरी ओर भय , आशंका और विद्रोह की भावना ने राजा को अशान्त कर रखा था ।

गान्धारी नववधू कलिंगसेना से पहली ही भेट में राजा को क्षोभ हो गया था । वे इसके बाद फिर उनसे मिले भी नहीं। परन्तु इस अनिन्द्य सुन्दरी बाला को प्रथम परिचय ही में क्षुब्ध कर देने तथा चम्पा की हाथ में आई राजकुमारी को खो बैठने से वे भीतर - ही भीतर बहुत तिलमिला रहे थे। उधर यज्ञ के विविध अनुष्ठान् , व्रत -नियम , प्रक्रियाओं तथा प्रबन्ध- सम्बन्धी अनेक उलझनों ने उन्हें असंयत कर दिया था ।

राजकुमार विदूडभ ने इस सुयोग से बहुत लाभ उठाया था । उन्होंने समागत अनेक राजाओं को अपना मित्र बना लिया था । वे उनके सहायक और समर्थक हो गए थे। नगर के जो गृहपति , सेट्टी , पौरजन और निगम राजा पर आक्षेप लेकर आते, उनसे युवराज विदूडभ अपनी गहरी सहानुभूति दिखाते और राजा की मनमानी पर अपनी बेबसी और रोष प्रकट करते थे । इस प्रकार घर - बाहर उनके मित्रों , समर्थकों और सहायकों का एक दल और अनुकूल वातावरण बन गया था ।

एक दिन अवकाश पाकर उन्होंने आचार्य अजित केसकम्बली से एकान्त में वार्तालाप किया । राजकुमार ने कहा

“ आचार्य, अब यह यज्ञ - पाखण्ड और कितने दिन चलेगा ? ”

“ यह पुण्य समारोह है युवराज, सौ वर्ष भी चल सकता है, बारह वर्ष भी और अठारह मास पर्यन्त भी । ”

“ और इतने काल तक राज्य की सारी व्यवस्था इसी प्रकार रहेगी । ”

“ तो कुमार , एक ही बात हो सकती है, या तो राजा स्वर्ग के लिए पुण्यार्जन करें या दुनियादारी की खटपट में रहें । ”

“ बहुत पुण्य - संचय हो चुका, आचार्य! अब अधिक की आवश्यकता नहीं है। ”

आचार्य हंस पड़े । उन्होंने कहा - “ पुत्र , मैं तुम्हारे लिए असावधान नहीं हूं । ”

“ तो आचार्य, यही ठीक समय है । न जाने बन्धुल सेनापति कब आ जाए। ”

“ अभी आ नहीं सकता , पुत्र ! सीमान्त पर वह जटिल कठिनाइयों में फंसा है । वयस्य यौगन्धरायण ने उसे विग्रह और भेद में विमूढ़ कर दिया है । ”

“ फिर भी आचार्य, यदि मैं इस समय विद्रोह करूं , तो सफलता होगी ? ”

“ अभी नहीं , रत्नहोम के बाद । आज द्वितीया है , त्रयोदशी को रत्नहोम संपूर्ण होगा । फिर पन्द्रह दिन खाली जाएंगे, यज्ञ की मुख्य क्रिया नहीं होगी, यजमान की उपस्थिति भी न होगी। इसके बाद आगामी चतुर्दशी को अभिषेक होगा । इसी अवकाश में पुत्र , तुम कार्यसिद्धि करना। अभी मैं सीमान्त से पायासी के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूं । ”

“ क्या आपने कोई योजना स्थिर की है , आचार्य ? ”

“ हां पुत्र , मैं तुझे यथासमय अवगत करूंगा। ”

“ जैसी आपकी आज्ञा ! मैंने अनेक राजाओं को मिला लिया है और जनपद भी गवालम्भन के कारण क्षुब्ध है। ”

“ मैं भी यही समझकर श्रमण महावीर और शाक्य- पुत्र को सहन कर रहा हूं। उन्हें अपना काम करने दो । ”

“ परन्तु कारायण का क्या होगा ? ”

“ समय पर कहूंगा कुमार, अभी नहीं । अभी तुम राजा के अनुगत रहो , जिससे वह आश्वस्त रहें । तुमने देखा है , राजा बहुत क्षुब्ध हैं । ”

“ देख रहा हूं आचार्य। ”

“ तो पुत्र , तू निश्चिन्त रह। नियत काल में मैं तेरे ही सिर पर यज्ञपूत जल का अभिषेक करूंगा। ”

“ तो आचार्य, मैं भी आपका चिर अनुगत रहूंगा । ”यह कहकर राजकुमार विदूडभ ने आचार्य को प्रणाम कर विदा ली ।

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